हां भाई मैं मजदूर हूं ,
आज अपने ही देश में मजबूर हूं,
रोज मेहनत से कमाने वाला ,
दिल में छोटे-छोटे सपनों को दबाने वाला,
नेताओं की चुनावी सभा में भीड़ बढ़ाने वाला,
देश की अर्थव्यवस्था को खून पसीने से सींचने वाला,
हां भाई मैं वही मजदूर और मजबूर हूं ।
मैं खरी धूप में रेल की पटरियां बिछाता हूं ,
दिन-रात खोद के सड़क बनाता हूं ,
और एक दिन उसी पटरी-सड़क पर मैं मर जाता हूं ।
हां भाई मैं वही मजदूर हूं …
माना कि पढ़ाई लिखाई में अनपढ़ हूं ,
पर देश के पढ़े लिखों का बोझ उठाता हूं ,
चंद पैसों के लिए मैं खुद को रोज तपाता हूं ,
घर बार छोड़ मैं परदेस जाता हूं ,
दो वक्त की रोटी के लिए मैं यह बोझ उठाता हूं,
बहुमंजिला इमारतें मैं बनाता हूं ,
पर खुद धारावी जैसी जगह पर मैं मर जाता हूं ।
चुनावी दौर में मुफ्त सफर मैं करता हूं ,
लेकिन महामारी है साहब, चुनाव नहीं..
इसीलिए सड़कों पर मैं मरता हूं ,
वोटों के लिए मैं प्रवासी से आवासी बन जाता हूं,
खाना पीना और ठहरना मैं मुफ्त में पाता हूं ,
लेकिन महामारी है साहब, चुनाव नहीं ….
इसीलिए मैं भूखा प्यासा पैदल ही गांव जाता हूं ।
करोना से तो पता नहीं पर भुखमरी से बेहाल हूं,
हिंदू-मुस्लिम करने वालों के लिए मैं एक सवाल हूं,
मन की बात बहुत सुन ली, मरने की बात सुनाता हूं ,
महामारी में जानवरों जैसे जीने की बात बताता हूं ।
फल पत्ते खाकर मैं रोज रात सो जाता हूं ,
भोर होने से पहले ही गांव की ओर चला जाता हूं,
रात को थक हार मैं पटरी पर सो जाता हूं,
सुबह होने से पहले मैं मालगाड़ी से कटकर मर जाता हूं,
पैदा तो मैं इंसान हुआ था पर आज मजदूर बनकर मर जाता हूं,
न जाने क्यों मैं मजदूर हूं और मजबूर बनकर रह जाता हूं,
न जाने क्यों मैं मजदूर हूं और मजबूर बनकर मर जाता हूं ।।
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